"ऐपण"
‘ऐपण’ पारंपरिक कला का एक अद्वितीय उदाहरण है, जिसका प्रयोग भारत के एक मनोरम पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के कुमाऊँनी क्षेत्रों के लोगों किया जाता है| ऐपण शब्द का उद्भव संस्कृत के शब्द ‘अर्पण’ से हुआ है| ऐपण शब्द का असली अर्थ लिखाई है, जो एक प्रकार का प्रतिरूप है|
ऐपण का आधार मुख्यतः गेरू से तैयार किया जाता है| यह एक प्रकार का सिंदूरी मिश्रण है| गेरू से तैयार आधार पर भीगे हुए चावलों को पीस कर तैयार किये मिश्रण से अंगुलियों की सहायता से विशेष आकृतियां बनायीं जाती हैं| ये नमूने कई प्रकार के होते हैं, जैसे - वसुंधरा, भित्ति, स्वस्तिका, बिंदु, ओम आदि| इसे दाहिने हाथ की अंगुलियों की सहायता से बनाया जाता है| ऐपण कला के ऐसे नमूने हैं जिसमें विभिन्न प्रकार की ज्यामितीय आकृतियों, देवी देवताओं और प्रकृति के भिन्न-भिन्न वस्तुओं को बनाया जाता है| इन्हें बारीकी के साथ घरों की चौखटों, दरवाजों, दीवारों, तुलसी के गमलों, कपड़ों तथा कागज पर उकेरा जाता है|
समय के बदलने के साथ-साथ ऐपण का प्रारूप भी बदला है| गेरू के स्थान पर अब लाल रंग के पेंट तथा चावल के मिश्रण के स्थान पर सफ़ेद रंग के पेंट ने जगह बना ली है| उँगलियों की जगह ब्रश की सहायता से ऐपण बनाये जाने लगे हैं| आजकल तो बाज़ार में विभिन्न प्रकार के स्टीकर भी उपलब्ध हैं, जिन्हें आसानी से दीवारों व चौखटों पर चिपकाया एवं निकाला जा सकता है| वर्तमान में कई युवा कलाकारों ने लुप्त होती हुई इस कला को विशेष नए अंदाज में बनाने का प्रयत्न प्रारंभ किया है, जिसके माध्यम से केवल घरों तक सीमित इस कला एवं कलाकारों की प्रतिभा को बाहरी संसार से जुड़ने का सुनहरा अवसर मिल रहा है|
एक कलाकार और एक कुमाऊँनी के रूप में, मैंने (लक्ष्मी पांगती) इस लोक कला को फिर से आधुनिक दृष्टिकोण देने के लिए मंडला, बिंदुवाद और देवनागरी टाइपोग्राफी तकनीकों का उपयोग करके पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।